ऊष्मागतिकी का प्रथम नियम वास्तव में ऊर्जा संरक्षण का नियम है जिसके अनुसार ऊर्जा नहीं नष्ट किया जा सकती है और ना ही उत्पन्न की जा सकती है अध्यक्ष एक प्रकार की ऊर्जा दूसरे प्रकार की ऊर्जा में बदली जा सकती है
उसमें गतिकी का प्रथम नियम सन 1842 में जुलियस रॉबर्ट मेयर ने प्रतिपादित किया तथा बाद में सन 1847 ईसा पूर्व में होलमोल्ट्ज(Halmholtz) नामक वैज्ञानिक ने इसकी व्याख्या की इस नियम के अनुसार
" किसी बिल की तंत्र की संपूर्ण ऊर्जा की मात्रा प्रत्येक समय स्थिर रहती है"
दूसरे शब्दों में- यदि कभी एक प्रकार की ऊर्जा उत्पन्न होती है तो दूसरे प्रकार की ऊर्जा की तुल्य मात्रा अदृश्य हो जाती है"
ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम-
उष्मा गतिकी के प्रथम नियम से केवल यह सूचना मिलती है कि किसी प्रकरण में ऊर्जा के विभिन्न रूपों को एक दूसरे में परिवर्तित किया जा सकता है लेकिन यह नियम यह नहीं बताता कि किन परिस्थितियों में तथा किस सीमा तक ऊर्जा का एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तन होता है यह दोनों सूचनाएं उष्मा गतिकी के द्वितीय नियम से प्राप्त होती हैं अवशोषित ऊष्मा पूर्ण रूप से कार्य में परिवर्तित नहीं हो सकती है इस नियम को कई प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है
1. क्लासियस की परिभाषा - ताप स्वतः अपने आप किसी वस्तु जो कम तापमान पर है से अधिक तापमान वाली वस्तु पर बाहरी साधन की सहायता के बिना प्रवाहित नहीं हो सकती है
2. केल्विन की परिभाषा- किसी चक्रीय प्रक्रम में किसी कुंड से उष्मा लेकर उसी समय उसे गर्म वस्तु से ठंडी वस्तु में बिना स्थानांतरित किए कार्य में परिवर्तित करना असंभव है।
3. ऐसा कोई भी चक्रीय प्रक्रम या चक्रीय मशीन असंभव है जिसमें किसी कुंड से अवशोषित उस्मा तुले मात्रा के कार्य में परिवर्तित हो जाए।
एक चक्रीय प्रक्रम या चक्रीय मशीन से तात्पर्य ऐसे प्रक्रम की श्रृंखला से है जिसमें तंत्र अपनी ठीक प्रारंभिक ऊष्मागतिकी अवस्था में लौट आता है।
4.स्थिर ताप पर चलने वाले चक्रीय प्रक्रम अर्थात समतापी चक्रीय प्रक्रम में ऊष्मा का कार्य में बदलना असंभव है।
ऊष्मागतिकी के द्वितीय नियम के कई कथन है जो केवल एक ही मूल धारणा के अनेक रूप हैं यह मूल धारणा निम्न है कार्य पूर्ण रूप से उष्मा में परिवर्तित किया जा सकता है लेकिन उस्मा का कार्य में पूर्णता तथा सभी परिस्थितियों में परिवर्तन संभव नहीं है।
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