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दर्शन का महत्व / आवश्यकताएं

 दर्शन शैक्षणिक विकास के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। 

दर्शन जीवन को उपयोगी बनाता है। 

दर्शन से मनुष्य की चिंतन की सीमा का विस्तार होता है। 

दर्शन अर्थव्यवस्था तथा राजनीतिक व्यवस्था में भी अपना समुचित योगदान प्रदान करता है।

दर्शन का स्वरूप

  1. दर्शन के स्वरूप को समझने के लिए दर्शन के विस्तार को समझना आवश्यक है इसके लिए निम्न बिंदुओं पर विचार करना आवश्यक है 
  2. दर्शन का स्वरूप बृहद है। क्योंकि इसमें जीवन और जगत दोनों समाहित होते हैं दर्शन जीवन और जगत की तार्किक निष्पक्ष मूल्यांकन सर्वांगीण समग्र और समीक्षात्मक रूप  में परीक्षण करता है और जीवन की मूलभूत रहस्य को जानने का प्रयास करता है किंतु दर्शन के स्वरूप को लेकर बचाते दर्शन और भारतीय दर्शन के मध्य विभेद है।
  3. पाश्चात्य दर्शन और भारतीय दर्शन दोनों का आरंभ जगत में निहित जिज्ञासा से होता है इसलिए दोनों ही दर्शन विचारों तथा विचारों की स्पष्टता तक पहुंच जाते हैं किंतु पाश्चात्य दर्शन विचारों के झंझार में फंस कर रह जाता है। और समुचित निष्कर्ष तक नहीं पहुंचता किंतु भारतीय दर्शन विचारों के जनजातियों से ऊपर चेतना की परिस्थिति तक पहुंच जाता है जहां चेतना विचारे ना हो जाती है उसे ही समाधि की स्थिति या मोक्ष प्राप्ति कहा जाता है।
  4. दर्शन सत्य असत्य भेद करना सिखाता है यही कारण है कि दर्शन का संबंध किसी एक विषय के साथ ना होकर सभी विषयों के साथ है संसार में ऐसा कोई भी विषय नहीं है जो दर्शन से असम बंद हो । और जिसे दर्शन की जरूरत नहीं पड़ती!
  5. उदाहरण के लिए कुछ विषय हैं साहित्य दर्शन विज्ञान दर्शन कला दर्शन राजनीतिक दर्शन समाज दर्शन इतिहास दर्शन कानून दर्शन इत्यादि।
  6. दर्शन किसी विषय से संबंधित विश्वासों और मान्यताओं को स्वीकार या अस्वीकार करने से पूर्व उसके निष्पक्ष रुप से आलोचनात्मक परीक्षण करता है।
  7. विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए दर्शनशास्त्र की आवश्यकता होती है। दार्शनिक किसी भी तथ्य को सहायता से स्वीकार करते वह किसी भी विषय पर निरंतर चिंतन करते रहते हैं जिसके फलस्वरूप कोई निश्चित परिणाम सामने आता है।

दर्शन के स्वरूप से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण बिंदु :

1.मूल्य मीमांसा -  दर्शन जीवन के मूल्यों और मान्यताओं से संबंधित प्रश्न के उत्तर खोजने पर बल देता है जैसे

  1. शुभ क्या है अशुभ क्या है?
  2. अच्छा क्या है बुरा क्या है?
  3. उचित क्या है अनुच्छेद क्या है?
2. तत्व मीमांसा - तत्व मीमांसा दर्शन शास्त्र के अंतर्गत शामिल एक महत्वपूर्ण शब्दावली है जिसके अंतर्गत विभिन्न प्रश्नों पर विचार किया जाता है जो निम्नलिखित हैं

  1. ईश्वर क्या है?
  2.  परम तत्व क्या है?
  3.  परम तत्व का स्वरूप कैसा है ?

इत्यादि प्रश्न पर विचार किया जाता है

ज्ञान मीमांसा -ज्ञान मीमांसा दर्शन शास्त्र की एक शाखा है जिसके अंतर्गत निम्नलिखित प्रश्नों पर विचार किया जाता है

  1. ज्ञान क्या है?
  2. ज्ञान का स्रोत क्या है?
  3. ज्ञान की सीमा क्या है?
  4. ज्ञान का विस्तार कहां तक है।?

इत्यादि प्रश्न पर विचार किया जाता है।

राजनीति दर्शन -  इसके अंतर्गत राजनीतिक विचारधारा राजनीतिक मूल्य तथा राजनीतिक अवधारणाओं पर विचार किया जाता है साथ ही साथ उसका मूल्यांकन भी किया जाता है।।।

धर्म-दर्शन - धर्म दर्शन के अंतर्गत विभिन्न समाज धर्म आदि में प्रचलित मूल्यों और विश्वास हो तथा प्रचलित मान्यताओं का मूल्यांकन किया जाता है।

समाज दर्शन - समाज दर्शन में सामाजिक व्यवस्थाओं समाज की संरचना सामाजिक आदर्श इत्यादि मतों पर विचार किया जाता है।

धर्म और धर्म-दर्शन 

धर्म शब्द को पहले समझ लेना आवश्यक है धर्म और धर्म दर्शन दोनों अलग-अलग हैं दोनों के स्वरूप को समझने की पूर्व धर्म की दोनों पक्षों को समझ लेना आवश्यक है

1.आंतरिक पक्ष  - जिसमें मूल्यों और नैतिकता को मानता है दान दया करूणा  सहिष्णुता परोपकार।

2.बाह्य  स्वरूप -

  1.  प्रतीक धर्म का अलौकिक शक्ति को मानता है विश्वास गॉड ईश्वर अल्लाह
  2. पूजा या उपासना पद्धति
  3. कोई व्यक्ति व पुस्तक स्थान मंदिर जिसे पवित्रा पावन मानता है
  4. प्रत्येक धर्म अपने अनुयायियों को दुख से मुक्त कराने का आश्वासन देते हैं।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि धर्म के दो पक्ष है इसलिए धर्म की इन दोनों पक्षों को समझकर विस्तृत रूप में धर्म के स्वरूप को देखा जा सकता है किंतु धर्म की निश्चित और अर्थ पूर्ण परिभाषा देना कठिन है इस कठिनाई का सामना एक समाधान है कि कोई एक निश्चित और सर्वमान्य सिद्धांत खोजने की स्थान पर कुछ ऐसे सामान्य तत्व खोजे जाए जिन्हें धर्म का मूल तत्व समझा जाए।

धर्म के चार मूल तत्व निम्नलिखित हो सकते हैं 

  1. किसी अलौकिक सत्ता में विश्वास तारों का आधारभूत तत्व है।
  2. अलौकिक 2 सत्ता शक्ति की पूजा और उपासना धर्म का दूसरा मूल तत्व है।
  3. तीसरा आधारभूत तत्व है उन समस्त व्यक्तियों स्थानों पुस्तकों तथा वस्तुओं को अति पावन या पवित्रम मानना जिनका संबंध कुछ अलौकिक सकता से हैं।
  4. प्रत्येक धर्म अनुयाई के लिए दुख से मुक्ति का आश्वासन प्रदान करता है।


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